कविता : सखा..
सखा: प्रेम के संगी
रचना श्रीवास्तव
5/27/20231 min read
नि दिन शीश झुकाती हूँ
मैं ख़ुद को तुम में समाती हूँ
मुझको तुम ख़ुद में दिखते हो
मैं ख़ुद को तुम में पाती हूँ।
तुम सखा मेरे मुझको लगते हो
सदा साथ में मेरे यूँ दिखते हो
हरदम ध्यान तुम्हारा करती हूँ
पल पल गीत तुम्हारे गाती हूँ।
कभी अंधकार में घिर जाऊँ तो
किसी मुश्किल से डर जाऊँ तो
हृदय प्रेम की जोत दिखा देना
लौ जिसकी ख़ुद में लगाती हूँ।
तन मन सब अब एक हुए हैं
भाव प्रभाव भी सब नेक हुए हैं
अब कुछ भी यह दिल चाहे न
तेरी ही लगन हिया में जगाती हूँ।
कण कण में तेरा ही दर्शन है
यह जीवन तुझको अर्पण है
तुम संग मन मेरा एक दर्पण है
मन ही मन तुझ संग मुस्काती हूँ।