कविता : हे पत्थर..

कठोर पत्थर के अंदर

रचना श्रीवास्तव

7/15/20231 min read

क्यों हो तुम इतने कठोर

क्या नहीं करते शोर

रेत के कण जो बसे तुम्हारे पोर पोर

क्यों हो तुम इतने सघन

क्या नहीं करता तुम्हारा मन

फिर बिखर जाने को कण कण

और बह जाने को जैसे उन्मुक्त पवन

फिर किसी बौराई सी

बेख़ौफ़ जलधारा के संग संग

तुम कभी तो खिलो

कभी तो हिलो डुलो

और कभी तो देखो झुककर

तुम्हारे नीचे अभी भी

रहती कितनी नमी जमकर

और वो हरियाली

अभी भी है व्याकुल

फिर से उग आने को

तुमहारे आस पास ही

झूमके हँसके खिलखिलाकर