कविता : मेरा शहर....आजकल !
मेरा शहर: एक आधुनिकता की नज़रिया"
रचना श्रीवास्तव
5/27/20231 min read
मेरा शहर....आजकल !
क्यूँ मिज़ाज मेरे शहर का
बदल गया है आजकल
हो गया हर शख़्स बीमार
मेरे शहर का आजकल !
ऐसे बरसीं ग़मों की घटायें
लहू हुआ शृंगार आजकल
छल रहा आदमी को आदमी
झूठ हुआ कारोबार आजकल !
गुमराह हैं लोग मेरे शहर के
करते नही एतबार आजकल
कह नही सकते कौन ज़िंदा
कौन मर गया है आजकल !
होठों पे तो लतीफ़े हैं लेकिन
आवाज़ में छाले हैं आजकल
मुखौटा बनके घूमते हैं लोग
अन्दाज़ निराले है आजकल !
शहर धुआँ धुआँ है आजकल
न जाने क्या हुआ है आजकल
नैतिकतायें सब घर छोड़ चली
मानवता हुयी है हवा आजकल !
दिल से दिल को राहत न रही
हर दिल है बदगुमाँ आजकल
बदली बदली लगे हैं रानाइयाँ
बदली हुई है सबा आजकल !
चर्चायें आम हुई आँधियों की
सहमी हैं पुरवाइयाँ आजकल
निष्फल हो रही हैं दुआयें सारी
सफल हो रही बद्दुआ आजकल !